देश, काल, पात्र और दान आदि का विचार --------------------------------------------------देश====देवयज्ञ आदि कर्मों में अपना शुद्ध गृह समान फल देने वाला होता है अर्थात अपने घर में किये हुए देवयज्ञ आदि शास्त्रोक्त फल को सममात्रा में देनेवाले होते हैं । - गोशाला का स्थान घर की अपेक्षा दस गुना फल देता है । - जलाशय का तट उससे भी दस गुना महत्त्व रखता है । - जहाँ बेल, तुलसी एवं पीपलवृक्ष का मूल निकट हो, वह स्थान जलाशय के तट से भी दसगुना फल वाला होता है । - देवालय को उससे भी दस गुना महत्त्व वाला जानना चाहिए । - तीर्थभूमि का तट देवालय से दस गुना महत्त्व वाला होता है । - उससे दस गुना श्रेष्ठ है नदी का किनारा । - उससे दस गुना उत्कृष्ट है तीर्थ नदी का तट । - उससे भी दस गुना महत्त्व रखता है सप्तगंगा नामक नदियों का तीर्थ (गंगा, गोदावरी, कावेरी, ताम्रपर्णी, सिन्धु, सरयू और नर्मदा)। - समुद्र के तट का स्थान इनसे भी दसगुना पवित्र मन गया है । - पर्वत के शिखर का प्रदेश समुद्रतट से भी दस गुना पावन है । - सबसे अधिक महत्व का वह स्थान जानना चाहिए जहाँ मन लग जाय ।काल====सत्ययुग में यज्ञ, दान आदि कर्म पूर्णफल देनेवाले होते हैं । त्रेतायुग में उसका तीन-चौथाई फल मिलता है । द्वापर में सदा आधे ही फल की प्राप्ति कही गयी है । कलियुग में एक चौथाई ही फल की प्राप्ति समझनी चाहिए और आधा कलियुग बीतने पर उस चौथाई फल में से भी चतुर्थांश काम हो जाता है । - शुद्ध अन्तः करण वाले पुरुष को शुद्ध एवं पवित्र दिन सम फल देने वाला होता है । - सूर्या-संक्रान्ति के दिन किया हुआ सत्कर्म पूर्वोक्त शुद्ध दिन की अपेक्षा दस गुना फल देने वाला होता है । - इससे दस गुना फल उस कर्म का है जो विषुव नामक योग में किया जाता है । - दक्षिणायन/कर्क-संक्रान्ति में किये पुण्यकर्म का महत्त्व विषुव से भी दस गुना माना गया है । - उससे दस गुना महत्त्व मकर-संक्रान्ति का है । - मकर-संक्रान्ति से दस गुना महत्व चन्द्रग्रहण में किये पुण्य का है । - सूर्यग्रहण का समय सबसे उत्तम है, इसमें किये गए पुण्यकर्म का फल चन्द्रग्रहण से भी अधिक और पूर्णमात्र में होता है ।जन्म-नक्षत्र के दिन तथा व्रत की पूर्ती के दिन का समय सूर्यग्रहण के समान ही समझा जाता है । परन्तु महापुरुषों के संग का काल करोड़ों सूर्यग्रहण के समान पावन है, ऐसा ज्ञानी पुरुष जानते-मानते हैं ।पात्र ====जो पतन से त्राण करता है अर्थात नरक में गिरने से बचाता है, उसके लिए इसी गुण के कारण शास्त्र में 'पात्र' शब्द का प्रयोग होता है । वह दाता का पातक से त्राण करने के कारण 'पात्र' कहलाता है ।पतनात्त्रायत इति पात्रं शास्त्री प्रयुज्यते ।दातुश्च पातकात्त्राणात्पात्रमित्यभिधीयते ।।शि। पु। वि। १५।१५गायत्री अपनी गायक का पतन से त्राण करती है; इसलिए वह गायत्री कहलाती है ।जैसे इस लोक में जो धनहीन है वह दुसरे को धन नहीं देता - जो यहाँ धनवान है वही दुसरे को धन दे सकता है, उसी तरह जो स्वयं शुद्ध और पवित्रात्मा है, वही दुसरे मनुष्यों का त्राण या उद्धार कर सकता है । जो गायत्री का जप करके शुद्ध हो गया है, वही शुद्ध ब्राह्मण कहलाता है । इसलिए दान, जप, होम और पूजा सभी कर्मों के लिए वही शुद्ध पात्र है । ऐसा ब्राह्मण ही दान तथा रक्षा करने की पात्रता रखता है ।स्त्री या पुरुष - जो भी भूखा हो, वही अन्नदान का पात्र है । जिसको जिस वास्तु की इच्छा हो, उसे वह वस्तु बिना मांगे ही दे दी जाय तो डाटा को उस दान का पूरा-पूरा फल प्राप्त होता है, ऐसी महर्षियों की मान्यता है । जो सवाल या याचना करने के बाद दिया गया हो, वह दाना आधा ही फल देनेवाला बताया गया है । अपने सेवक को दिया हुआ दान एक चौथाई फल देनेवाला होता है ।जो जातिमात्रा से ब्राह्मण है और दीनतापूर्ण वृत्ति से जीवन बिताता है, उसे दिया हुआ धन का दान डाटा को इस भूतल पर दस वर्षों तक भोग प्रदान करनेवाला होता है । वही दान यदि वेदवेत्ता ब्राह्मण को दिया जाय तो वह स्वर्गलोक में देवताओं के वर्ष से दस वर्षों तक दिव्य भोग देनेवाला होता है ।शिल और उञ्छवृत्ति से लाया हुआ और गुरुदक्षिणा में प्राप्त हुआ अन्न-धन शुद्ध द्रव्य कहलाता है । उसका दान दाता को पूर्णफल देनेवाला बताया गया है । क्षत्रियों का शौर्य से कमाया हुआ, वैश्यों का व्यापर से आया हुआ और शूद्रों का सेवावृत्ति से प्राप्त किया हुआ धन भी उत्तम द्रव्य कहलाता है । धर्म की इच्छा रखनेवाली स्त्रियों को जो धन पिता और पति से मिला हुआ हो, उनके लिए वह उत्तम द्रव्य है ।